देवी! सुरेश्वरी भगवती गंगे
देवि! सुरेश्वरि! भगवति! गंगे!
त्रिभुवनतारिणि तरलतरंगे।
शंकरमौलिविहारिणि विमले
मम मतिरास्तां तव पदकमले ॥1 ॥
हे देवी! सुरेश्वरी! भगवती गंगे! आप तीनों लोकों को तारने वाली हैं। शुद्ध तरंगों से युक्त, महादेव शंकर के मस्तक पर विहार करने वाली हे मां! मेरा मन सदैव आपके चरण कमलों में केंद्रित है।
भागीरथीसुखदायिनि मातस्तव
जलमहिमा निगमे ख्यातः ।
नाहं जाने तव महिमानं
पाहि कृपामयि मामज्ञानम् ॥ 2 ॥
हे मां भागीरथी! आप सुख प्रदान करने वाली हो। आपके दिव्य जल की महिमा वेदों ने भी गाई है। मैं आपकी महिमा से अनभिज्ञ हूं। हे कृपामयी माता! आप मेरी रक्षा करें।
हरिपदपाद्यतरंगिणी गंगे
हिमविधुमुक्ताधवलतरंगे।
दूरीकुरुमम दुष्कृतिभारं
कुरु कृपया भवसागरपारम् ॥ 3 ॥
हे देवी! आपका जल श्री हरि के चरणामृत के समान है। आपकी तरंगें बर्फ, चंद्रमा और मोतियों के समान धवल हैं। कृपया मेरे सभी पापों को नष्ट कीजिए और इस संसार सागर के पार होने में मेरी सहायता कीजिए।
तव जलममलं येन निपीतं
परमपदं खलु तेन गृहीतम्।
मातर्गंग त्वयि यो भक्तः किल
तं द्रष्टुं न यमः शक्तः ॥ 4 ॥
हे माता! आपका दिव्य जल जो भी ग्रहण करता है, वह परम पद पाता है। हे मां गंगे! यमराज भी आपके भक्तों का कुछ नहीं बिगाड़ सकते।
पतितोद्धारिणि जाह्नवि गंगे
खंडित गिरिवरमंडित भंगे।
भीष्मजननि हे मुनिवरकन्ये !
पतितनिवारिणि त्रिभुवन धन्ये ॥ 5 ॥
हे जाह्नवी गंगे! गिरिवर हिमालय को खंडित कर निकलता हुआ आपका जल आपके सौंदर्य को और भी बढ़ा देता है। आप भीष्म की माता और ऋषि जह्नु की पुत्री हो। आप पतितों का उद्धार करने वाली हो। तीनों लोकों में आप धन्य हो।
कल्पलतामिव फलदां लोके
प्रणमति यस्त्वां न पतति शोके।
पारावारविहारिणिगंगे
विमुखयुवति कृततरलापंगे॥ 6 ॥
हे मां! आप अपने भक्तों की सभी मनोकामनाएं पूर्ण करने वाली हो। आपको प्रणाम करने वालों को शोक नहीं करना पड़ता। हे गंगे! आप सागर से मिलने के लिए उसी प्रकार उतावली हो, जिस प्रकार एक युवती अपने प्रियतम से मिलने के लिए होती है।
तव चेन्मातः स्रोतः स्नातः
पुनरपि जठरे सोपि न जातः।
नरकनिवारिणि जाह्नवि गंगे
कलुषविनाशिनि महिमोत्तुंगे। ॥ 7 ॥
हे मां! आपके जल में स्नान करने वाले का पुनर्जन्म नहीं होता। हे जाह्नवी! आपकी महिमा अपार है। आप अपने भक्तों के समस्त कलुषों को विनष्ट कर देती हो और उनकी नरक से रक्षा करती हो।
पुनरसदंगे पुण्यतरंगे
जय जय जाह्नवि करुणापांगे ।
इंद्रमुकुटमणिराजितचरणे
सुखदे शुभदे भक्तशरण्ये ॥ 8 ॥
हे जाह्नवी! आप करुणा से परिपूर्ण हो। आप अपने दिव्य जल से अपने भक्तों को विशुद्ध कर देती हो। आपके चरण देवराज इंद्र के मुकुट के मणियों से सुशोभित हैं। शरण में आने वाले को आप सुख और शुभता प्रदान करती हो।
रोंगं शोकं तापं पापं हर मे
भगवति कुमतिकलापम्।
त्रिभुवनसारे वसुधाहारे
त्वमसि गतिर्मम खलु संसारे ॥ 9 ॥
हे भगवती! मेरे समस्त रोग, शोक, ताप, पाप और कुमति को हर लो आप त्रिभुवन का सार हो और वसुधा का हार हो,हे देवी! इस समस्त संसार में मुझे केवल आपका ही आश्रय है।
अलकानंदे परमानंदे कुरु
करुणामयि कातरवंद्ये ।
तव तटनिकटे यस्य निवासः
खलु वैकुंठे तस्य निवासः ॥ 10 ॥
हे गंगे! प्रसन्नता चाहने वाले आपकी वंदना करते हैं। हे अलकापुरी के लिए आनंद-स्रोत हे परमानंद स्वरूपिणी! आपके तट पर निवास करने वाले वैकुंठ में निवास करने वालों की तरह ही सम्मानित हैं।
वरमिह नीरे कमठो मीनः
किं वा तीरे शरटः क्षीणः ।
अथवाश्वपचो मलिनो दीनस्तव
न हि दूरे नृपतिकुलीनः ॥ 11 ॥
हे देवी! आपसे दूर होकर एक सम्राट बनकर जीने से अच्छा है आपके जल में मछली या कछुआ बनकर रहना अथवा आपके तीर पर निर्धन चंडाल बनकर रहना।
भो भुवनेश्वरि पुण्ये धन्ये
देवि द्रवमयि मुनिवरकन्ये ।
गंगा स्तवमिमममलं नित्यं पठति
नरे यः स जयति सत्यम् ॥ 12 ॥
हे ब्रह्मांड की स्वामिनी! आप हमें विशुद्ध करें। जो भी यह गंगा स्तोत्र प्रतिदिन गाता है, वह निश्चित ही सफल होता है।
येषां हृदये गंभक्तिस्तेषां
भवति सदा सुखमुक्तिः ।
मधुराकंता पञ्झटिकाभिः
परमानन्दकलितललिताभिः ॥ 13 ॥
जिनके हृदय में गंगा जी की भक्ति है। उन्हें सुख और मुक्ति निश्चित ही प्राप्त होते हैं। यह मधुर लययुक्त गंगा स्तुति आनंद का स्रोत है।
गंगा स्तोत्रमिदं भवसारं
वांछितफलदं विमलं सारम् ।
शंकरसेवक शंकर रचितं पठति
सुखीः तव इति च समाप्तः ॥ 14 ॥
भगवत चरण आदि जगद्गुरु द्वारा रचित यह स्तोत्र हमें शुद्ध-विशुद्ध और पवित्र कर वांछित फल प्रदान करे।